देश में त्राहिमाम मचा रहे और लोग मरते रहें, तो कथित लोकतांत्रिक मूल्यों का अचार बनाओगे?
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If citizens’ lives can not be saved, what’s the use of so-called democracy?

अभिरंजन कुमार जाने-माने पत्रकार, कवि और मानवतावादी चिंतक हैं। कई किताबों के लेखक और कई राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय समाचार चैनलों के संपादक रह चुके अभिरंजन फिलहाल न्यूट्रल मीडिया प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक हैं।


सब मिले हुए हैं जी। इसीलिए दिल्ली सरकार के अस्पतालों में कोरोना मरीजों का एक तरह से मर्डर ही हो रहा है, ताकि सरकारी अस्पतालों से डरकर लोग प्राइवेट अस्पतालों में जाएं, जहाँ इलाज कराने के लिए उन्हें और उनके परिजनों को ज़मीन मकान खून गुर्दा लिवर सब बेचना पड़ जाए।

एक प्राइवेट अस्पताल की कोरोना ट्रीटमेंट की रेट लिस्ट

रजत जी (इंडिया टीवी वाले) को साधुवाद, कि वे दिल्ली के सरकारी अस्पतालों का हत्यारा स्वरूप अब दिखा रहे हैं। मैंने एक महीना पहले ही सरकार और मीडिया को सलाह दी थी कि वे कोरोना से दम तोड़ते लोगों को भी दिखाएं, ताकि देश तय कर सके कि भविष्य की आशंका से व्यग्र किंतु सही-सलामत मजदूरों का दर्द बड़ा है या वर्तमान में तड़प-तड़प कर दम तोड़ते लोगों और उनके परिवार वालों का दर्द बड़ा है? (पढ़ें, कोरोना तो फैल गया, अब कैसे बचें? आइए इसका समाधान जानते हैं )

दुर्भाग्य कि जब इस देश को कोरोना से लड़ना था, तब पहले तो मेरे मुसलमान भाइयों-बहनों को धर्म प्रचार की आ पड़ी। तबलीगी आतंकवादियों के लिए वे ऐसे एकजुट हुए, जैसे उनके धर्म पर किसी ने हमला कर दिया है और इसके खिलाफ वे युद्ध के मैदान में आ खड़े हुए हैं।

इसके बाद कुछ घनघोर पापियों के भीतर भी मजदूरों के लिए फ़र्ज़ी संवेदनाओं का तूफ़ान ऐसा उमड़ा कि देश भूल ही गया कि इस वक़्त कोरोना से लड़ना है या मजदूरों को वापस उन राजमहलों में ले जाकर सोने के पलंगों पर सुलाना है, जिसपर नेहरू के ज़माने से वे सोते आए हैं।

मज़दूरों के प्रति उमड़े इस फ़र्ज़ी संवेदना के तूफान के कारण मजदूरों को फायदा होने के बदले उल्टे नुकसान हुआ। इसके कारण वे सड़कों पर भी मारे गए, रेल पटरियों पर भी मारे गए, श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में भी मारे गए, अब कोरोना से भी मर रहे हैं और महामारी को लेकर गांव गांव तक भी पहुंच गए हैं, जहां शायद ही किसी को समुचित इलाज मिल सके। क्या सरकारों को यह सुनिश्चित नहीं करना था कि वे जहां थे, वहीं रहें और जीवनरक्षक बुनियादी सुविधाएं उन्हें मिलती रहें?

दरअसल वह फ़र्ज़ी संवेदना भी उस क्रूर साज़िश का खूबसूरत नकाब थी, जिसे दूसरे राज्यों से आए मजदूरों को भगाने और देश भर में महामारी फैलाने के इरादे से कुछ विशेष राजनीतिक पार्टियों ने दिल्ली और महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों में रचा था।

तो लीजिए अब भोगिए। मरिये और मारिये। जैसी तस्वीरें आज दिल्ली मुंबई से आ रही हैं, वैसी जल्द ही देश के कोने कोने से आएंगी। शहर शहर से आएंगी। गांव गांव से आएंगी।

इसलिए, अब भी केंद्र सरकार से मेरी अपील है कि कोड़े भी खाने और प्याज भी खाने की पॉलिसी छोड़िए। अगर पूरे देश में नहीं, तो कम से कम उन सभी इलाकों में जल्द से जल्द एक महीने का कर्फ्यू लगाइए, जहां कोरोना के कन्फर्म केसेज हैं। लेकिन ऐसा करते हुए इस बार इतना सुनिश्चित अवश्य करें कि लोगों को राशन, दूध, पानी, रसोई गैस और दवा जैसी जीवनरक्षक चीज़ें घर के दरवाज़े पर मिल जाएं, ताकि पैनिक न मचे। साथ ही इस दौरान स्कूलों के फीस और बैंकों के ईएमआई वसूलने पर भी रोक लगाइए।

मैं फिर कह रहा हूँ। यह देश में स्वास्थ्य आपातकाल का वक़्त है। लोगों की ज़िन्दगियों का सवाल है। अगर मैं सरकार का मुखिया होता तो किसी की बकवास न सुनता, न सहता। लोगों की जान बचाने के लिए अगर मुझे कुछ हफ्तों के लिए तानाशाह भी बनना पड़ता, तो बन जाता। मानवता की रक्षा के लिए अगर कुछ सख्तियां भी करनी पड़तीं, तो करता।

सरकार हम इसलिए नहीं बनाते हैं कि वह खुद भी असहाय हो जाए और नागरिकों को भी असहाय बना दे। अगर देश में त्राहिमाम मचा रहेगा और लोग मरते रहेंगे, तो कथित लोकतांत्रिक मूल्यों का अचार बनाओगे? ज़रा सोचकर देखना!

(अभिरंजन कुमार के फेसबुक वॉल से)

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