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Abhiranjan Kumar raised protest on Rashtra Gana Jan Gan Man Adhinayak Jay he!

अभिरंजन कुमार जाने-माने पत्रकार, कवि और मानवतावादी चिंतक हैं। कई किताबों के लेखक और कई राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय समाचार चैनलों के संपादक रह चुके अभिरंजन फिलहाल न्यूट्रल मीडिया प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक हैं।


हर वर्ष उत्साह से गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस मनाता हूँ, लेकिन देश का राष्ट्रगान “जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्यविधाता” सुनकर ही मन खट्टा हो जाता है। मुझसे पहले भी अनेक लोगों ने यह सवाल पूछा है और मौजूदा राष्ट्रगान के बने रहने तक मैं भी लगातार पूछता ही रहूंगा कि हमारे गणतंत्र में “अधिनायक” कौन है और “भारत भाग्यविधाता” कौन है, जिसकी जय जयकार में पूरा देश सलामी देने की मुद्रा में खड़ा है?

गुलाम मानसिकता के प्रतीक इन दो अलोकतांत्रिक और शर्मनाक शब्दों के कारण यह पूरा का पूरा गान ही भ्रष्ट हो जाता है और यदि हम इसका कोई दूसरा बेहतर अर्थ निकालना भी चाहें तो नहीं निकाल सकते।

  1. तव शुभ नामे जागे (तुम्हारा/आपका शुभ नाम सुनकर जागते हैं)
  2. तव शुभ आशीष मांगे (तुम्हारा/आपका शुभ आशीर्वाद मांगते हैं)
  3. गाहे तव जयगाथा (तुम्हारी/आपकी जयगाथा गाते हैं), और
  4. जन गण मंगलदायक जय हे (जनता का मंगल करने वाले, तुम्हारी/आपकी जय हो)

चूंकि ये चारों वाक्य/वाक्य खंड भी उसी कथित “अधिनायक” और “भाग्यविधाता” का जयगान कर रहे हैं, इसलिए यह पूरा का पूरा गान ही निराशाजनक बन जाता है।

यह कैसा राष्ट्रगान है, जिसमें राष्ट्र की जय जयकार नहीं, बल्कि किसी कथित “अधिनायक” और “भाग्यविधाता” की जय जयकार है? स्पष्ट रूप से यह राष्ट्रगान किसी राष्ट्रभक्त कवि की नहीं, बल्कि सत्ता के किसी चापलूस चारण की रचना लगती है। जब मैं यह बोल रहा हूँ, तो मेरी इस टिप्पणी को रवींद्र नाथ टैगोर की अवमानना के तौर पर नहीं, बल्कि राष्ट्रगान के कथ्य और मर्म, शब्दों और भावों के विश्लेषण के रूप में ही देखा जाना चाहिए।

यह राष्ट्रगान इस बात का सबूत है कि हमारा गणतंत्र 71 साल बाद भी वास्तव में एक भीड़तंत्र ही है। जिस तरह से भीड़ का कोई विवेक नहीं होता, उसी तरह से इस गणतंत्र के समस्त कर्ता-धर्ताओं की विवेकशून्यता भी साफ परिलक्षित हो जाती है, जब करोड़ों लोग दशकों से एक गान की पृष्ठभूमि, संदर्भ और मतलब समझे बिना ही उसे गाए-गुनगुनाए जा रहे हैं।

यद्यपि अपने देश और लोकतंत्र का सम्मान रखने के लिए यह गान बजने पर मैं भी खड़ा हो जाता हूँ, लेकिन जितनी देर खड़ा रहता हूँ, उतनी देर यह गान मेरे मन में चुभता रहता है और यह अहसास बना रहता है कि 71 साल बाद भी हमारी लोकतांत्रिक और राष्ट्रीय चेतना का आलम यह है कि एक पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुके अधिनायकवादी गान पर भी हम लगातार ढोल-बाजे बजाए जा रहे हैं और सलामी ठोंके जा रहे हैं।

हालांकि 1911 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में अंग्रेज शासक जॉर्ज पंचम की मौजूदगी में पहली बार गाए गए इस गान को लेकर जब विवाद खड़ा हुआ, तो रवींद्र नाथ टैगोर ने इसपर सफाई भी दी थी और “अधिनायक” और “भारत भाग्य विधाता” शब्दों के मायने बदलने के असफल प्रयास भी किये थे, लेकिन साहित्य में लक्षणा और व्यंजना की चाहे कितनी भी गुंजाइश क्यों न हो, कुछ शब्दों के अर्थ इतने सुस्पष्ट और सुनिश्चित होते हैं कि उन्हें दूसरे अर्थ देने के प्रयास कभी सफल नहीं हो पाते।

जैसे कोई बड़े से बड़ा तीसमार खां साहित्यकार भी किसी को “कुत्ता” कहकर बाद में यह सफाई नहीं दे सकता कि मेरा मतलब उसे “वफादार” कहने से था। और अगर थोड़ी देर के लिए साहित्यकार की दलील पर भरोसा कर भी लिया जाए, तो क्या “वफादार” आदमी के लिए “कुत्ता” शब्द को ही स्वीकार करके प्रचलित करा दिया जाएगा और वफादारों की प्रशस्ति में उन्हें “वफादार” न कहकर “कुत्ता” कहा जाने लगेगा?

“अधिनायक” एक ऐसा ही शब्द है, जिसे कोई भी दूसरा अर्थ दिया जाना या किसी भी दूसरे अर्थ में प्रचलित किये जाने की कोशिशें मूर्खतापूर्ण हैं। “अधिनायक” शब्द का इस्तेमाल न तो तिरंगे के लिए, न ही ईश्वर के लिए, न ही किसी लोकतांत्रिक देश के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री या अन्य मंत्री-संतरी के लिए, न ही किसी लोकतांत्रिक देश की जनता के लिए किया जा सकता है। फिर कौन है वह “अधिनायक”, दासत्व की पराकाष्ठा तक पहुंचकर जिसका जयगान किया जा रहा है? इस शब्द के साथ जुड़कर “भारत भाग्यविधाता” शब्द का धर्म और अधिक भ्रष्ट हो गया और इन दोनों शब्दों के साथ जुड़कर पूरे गान का धर्म पूरी तरह से भ्रष्ट हो गया।

मेरा सवाल है कि राष्ट्रगान में जिन शब्दों को लेकर एक बड़ी आबादी के मन में शंकाएं लगातार बनी हुई हैं और जिन शब्दों को लेकर विवाद लगातार बना हुआ है, आखिर उन शब्दों को बनाए रखने का औचित्य क्या है? हमारा लोकतंत्र क्या इस किस्म की अधिनायकवादी बौद्धिक लठैती से चलेगा? क्या कुछ व्यक्तियों को स्थापित किये जाने की मंशा से थोपी गई चीज़ें इतनी बलवती हो जाएंगी कि इसके लिए पूरी की पूरी जनता की लगातार अवमानना की जाए? करोड़ों लोगों की भावनाओं की अनदेखी कर उनके ऊपर ज़बरदस्ती किसी बात को थोप दिया जाना ही क्या गणतंत्र है?

अगर नहीं, तो भारत के 72वें गणतंत्र दिवस पर मौजूदा राष्ट्रगान के विरोध में मैं खुलकर अपनी आवाज़ बुलंद कर रहा हूँ। भारत सरकार से मेरी मांग है कि या तो राष्ट्रगान से इन दोनों शब्दों को हटाया/बदला जाए, या फिर भारत अपना नया राष्ट्रगान निर्धारित करे। गुलामी के प्रतीकों का 71 साल बाद भी विद्यमान रहना और हमारा गाना-गुनगुनाना आज़ादी और गणतंत्र की मूल भावना के सर्वथा विपरीत है। यह गान पूरी तरह से अलोकतांत्रिक है और किसी भी लोकतंत्र में ऐसे किसी गान के बने रहने का कोई औचित्य नहीं है।

मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि समझदार लोग मेरी आपत्तियों को समझ जाएंगे। धन्यवाद। वंदे मातरम। भारत माता की जय।

(अभिरंजन कुमार के फेसबुक वॉल से साभार)

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