कोरोना से बचना है तो टीवी चैनलों के ज्ञान पर मत जाइए
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Indian Traditional Knowledge can be beneficial to avoid Korona

उमेश चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

कोरोना का संक्रमण निश्चित रूप से खतरनाक है। इसके बचाव के लिए किए जाने वाले हर उपाय का स्वागत होना चाहिए। चाहे वे देसी हों या आधुनिक और एलोपैथी। हमारे यहां एक ऐसी पीढ़ी तैयार हुई है, जिसे अपना पारम्परिक ज्ञान छी मानुष लगता है। आजादी के बाद के दौर में वैज्ञानिकता के नाम पर देसी और सांस्कृतिक ज्ञान परंपरा को नकारने की जबरदस्त मानसिकता भी विकसित हुई है।

आधुनिक तंत्र भी मानने लगा है कि लहसुन, आंवला, सरसों तेल अच्छे हैं। ये हमारी प्रतिरोधक क्षमता को और बढ़ाते हैं। समाजवादी नेताओं की मैंने विदेश जाने से पहले की तैयारी देखी है। वे लहसुन की गांठें लेकर जाते रहे हैं। उनके नाश्ते में लहसुन को शामिल देखा है। पूछने पर बताते थे कि विदेशी सरजमीं पर रोग दूर रखने में लहसुन का सेवन कारगर है।

भारतीय भोजन परंपरा में खासकर उत्तर और पूर्वी इलाके में सरसों के तेल का इस्तेमाल होता रहा है। इन्हें वायरस आक्रमण रोकने का माध्यम माना जाता था। कुछ लोग कोरोना को रोकने के नाम पर इनके सेवन और इस्तेमाल की वकालत कर रहे हैं, लेकिन इसे भी नकारने की कोशिश हो रही है। दरअसल हमें घुट्टी में यह ज्ञान पिला दिया गया है कि भारतीय परम्परा माने सब कुछ मूर्खता।

दिलचस्प यह है कि यह काम खबरिया चैनल भी खूब कर रहे हैं। वे कुछ कथित आधुनिक विशेषज्ञों के जरिए इसे नकार रहे हैं। एक चैनल पर एक डॉक्टर ने सरसों तेल के बारे में कहा कि नस्य चिकित्सा में सरसों तेल कारगर है, लेकिन वायरस रोकता है, इसके वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं। चैनल की एंकर महोदया नस्य को नस्या बोलती रहीं। डॉक्टर साहब भी नस्या बोलते रहे। यह माना भी कि नस्य चिकित्सा कारगर है, लेकिन बाद में खारिज भी किया, वह भी आधे मन से।

जब डेंगू फैला था तो आयुर्वेदिक इलाज को नकारने की होड़ मची थी। इसके वाहक हमारे चैनल ही बने थे, लेकिन इलाज में साबित हुआ कि पपीता, पपीते के पत्ते का रस, गुडुची, चंद्रप्रभा बटी डेंगू के इलाज में बेहद कारगर रही। बाद में एलोपैथिक डॉक्टर भी इन्हें सुझाने लगे थे।

मुझे अपना बचपन याद है। गरमी के दिनों में आंखों में आई फ्लू हो जाता था। बच्चे थे तो दर्द बर्दाश्त नहीं होता था। उसके इलाज के लिए रात को मइया (दादी) आंखों पर घर का सरसों तेल चभोर देती थी। अगली सुबह आंख बिल्कुल साफ हो जाती थी। अब भी आंख में कोई ऐसी समस्या होती है, मैं इस इलाज को आजमाता हूं और कामयाब रहता हूं।

मेरे बाबूजी पूरी गरमी हमारे पैर के दोनों अंगूठों में सुबह आक का दूध भर देते थे। उसके असर से आई फ्लू का खतरा कम हो जाता था। पता नहीं, तब ऐसे कितने नुस्खे थे, लेकिन हमने उन्हें ना सिर्फ भुला दिया, बल्कि उन्हें अवैज्ञानिक भी बताना शुरू कर दिया।

मेरे घर में किसी के जोड़ों का दर्द ठीक नहीं हो रहा था, तो उन्हें दिल्ली के टॉप के तीन-चार डॉक्टरों में से एक को दिखाया गया। उन्होंने जो गोली लिखी, उसकी निर्माण सामग्री की जांच की गई तो पता चला कि वह लहसुन से बनी थी। बस उसका नाम ठेठ अमेरिकी स्टाइल का है।

इसलिए जरूरी है कि कोरोना से बचाव करना है तो अपनी प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाइए और चैनलों के उस ज्ञान पर नहीं जाइए, जो अपनी परीक्षित व्यवस्था को नकारने में अपनी आधुनिकता साबित करते हैं। अपनी देसी परीक्षित पद्धति पर भी भरोसा जताइए। आखिर आयुर्वेद क्यों बढ़ रहा है, पूरी दुनिया उसकी दीवानी क्यों हो रही है, इसे ध्यान में रखिए।

हां, इसका यह भी मतलब नहीं है कि आपात स्थिति में भी आयुर्वेद या देसी नुस्खों पर ही निर्भर रहिए। अस्पताल जाने सेे परहेज मत कीजिए। लेकिन अपनी ज्ञान परंपरा का सम्मान जारी रखिए। यह हमारी थाती है।

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