संतुलन बनाते-बनाते सच का मुंह तो नहीं नोचने लगे हैं हम?
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By too much balancing, have we not started suppressing the truth?

अभिरंजन कुमार जाने-माने पत्रकार, कवि और मानवतावादी चिंतक हैं। कई किताबों के लेखक और कई राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय समाचार चैनलों के संपादक रह चुके अभिरंजन फिलहाल न्यूट्रल मीडिया प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक हैं।


कोरोना चीन से फैला, चीन ने फैलाया, लेकिन इसे चीनी वायरस कहने से यह रेसियल कमेंट हो जाता है।

तबलीगी जमात में दुनिया भर के मजहबी धर्म प्रचारक कोरोना संक्रमण लेकर शामिल हुए और फिर सरकार व प्रशासन से छिपाते हुए घूम-घूम कर पूरे देश में इसे फैला दिया, लेकिन इसके लिए जमात की निंदा करने से यह कम्युनल कमेंट हो जाता है।

कथित प्रोग्रेसिव व सेक्युलर लोग कोरोना की तुलना आए दिन होने वाली सड़क दुर्घटनाओं और अन्य बीमारियों से होने वाली मौतों से कर कर के थक गए, तो अब तबलीगी जमात की बैठक की तुलना तिरुपति बाला जी या वैष्णो देवी के श्रद्धालुओं की भीड़ से की जा रही है, बिना इस बात का जवाब दिये कि उन श्रद्धालुओं में कितने विदेशी थे, कितने कोरोना संक्रमित होने के कारण मर गए, लॉकडाउन के बाद कितनों ने मंदिर में पूजा करने की ज़िद की, कितने मंदिरों में छिपकर बैठे थे, कितनों ने संक्रमण की बात छिपाई और कितनों ने घूम घूमकर दूसरे लोगों में कोरोना फैलाया?

आज तक ने रिपोर्ट किया कि जमात के लोग बस में ले जाए जाते समय थूक रहे थे। क्या यह महज एक इत्तेफाक है कि इंफोसिस में काम करने वाले एक कट्टरपंथी इंजीनियर ने अपने जमात के लोगों से कहा था कि थूक थूक कर पूरे देश में कोरोना फैला दो?

सोचता हूँ, वोट की राजनीति करते करते इस देश में सच का मुंह कितने तरीकों से नोंचा जाने लगा है। आज सच बोलने से हम कितना डरने लगे हैं?

  1. सच बोलेंगे तो वोट बैंक नाराज़ हो जाएगा
  2. सच बोलेंगे तो किसी को बुरा लग जाएगा
  3. सच बोलेंगे तो दंगे भड़क जाएंगे
  4. सच बोलेंगे तो देश की एकता और अखंडता खतरे में पड़ जाएगी
  5. सच बोलेंगे तो देश का बंटवारा हो जाएगा।

वगैरह वगैरह।

कभी कभी मुझे लगता है कि 10 लाख से अधिक लोगों की लाशों पर आज़ाद हुए इस देश के लिए लाशें गिनना इतना आम हो गया है कि आज हम मजहबी कारणों से हुई हर एक मौत पर परदेदारी करने लगे हैं, विषयांतर करने लगे हैं, दूसरी मौतों का जिक्र कर उसे जस्टिफाई करने लगे हैं, जिसकी ज़िम्मेदारी हो उसे ज़िम्मेदार ठहराने से कतराने लगे हैं, गुनाह किसी का दोष किसी और पर मढ़ने लगे हैं।

मुझे याद है भारत में आतंकवाद की हर घटना के बाद कहा गया कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, जबकि लगभग तमाम आतंकवादी एक ही धर्म के थे और एक ही धर्म उन्हें लगातार संरक्षण देता रहा। शायद ही ऐसा कोई आतंकवादी हो जिसकी गिरफ्तारी पर, जिसके एनकाउंटर पर या जिसे सज़ा दिये जाने पर उस धर्म के धार्मिक लोगों द्वारा सवाल न उठाए गए हों। जितने दम से सरकार, सेना, पुलिस का विरोध किया जाता रहा, उतने दम से ऐसे किसी धार्मिक व्यक्ति ने कभी आतंकवाद और आतंकवादियों का विरोध किया हो, तो बताइए।

अब कुछ लोग जहां चलते फिरते कोरोना बम बनकर देश भर में महामारी को अधिक मारक बनाने के प्रयास में हैं, वहीं हर बात का दोष सरकार के मत्थे मढ़ने की तैयारी भी उतनी ही पुख्ता है। लेकिन याद रखिए, जिस देश की जनता ज़िम्मेदार नहीं होती, उस देश की सरकार भी कभी आदर्श नहीं बन पाती।

इसलिए, कथित सेक्युलरिज्म के नाम पर किसी समुदाय विशेष की कट्टरता, धर्मान्धता या बेवकूफी को इतना अधिक बढ़ावा मत दीजिए कि पूरा देश बारूद के ढेर पर बैठ जाए। मजहबी कट्टरता के तराजू पर अलग अलग मजहबों को बराबर तौलने का पाप भी मत कीजिए, क्योंकि सभी मजहबों में कुछ न कुछ मात्रा में कट्टरपंथी तत्व मौजूद होने का मतलब यह भी नहीं कि उनकी संख्या, प्रतिशतता, विध्वंसक शक्तियां और गतिविधियां भी बराबर ही हैं।

देश को साम्प्रदायिकता, कट्टरता, हिंसा, आतंक, दंगों, मौतों से छुटकारा मिले, और सभी समुदाय के लोग धार्मिक भावनाओं से ऊपर उठकर ज़िम्मेदारी और समानता के बोध के साथ देश के विकास के लिए समान रूप से योगदान कर सकें, इसके लिए ज़रूरी है कि सच बोला जाए और जब जिसे आईना दिखाने की ज़रूरत हो, दिखाया जाए। शुक्रिया।

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