सियासी लाभ के लिए विपक्ष और सरकार दोनों ने दिल्ली को बनाया प्रयोग स्थल!
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Both the Opposition and the government have made Delhi an experiment ground for political gains!

अभिरंजन कुमार जाने-माने पत्रकार, कवि और मानवतावादी चिंतक हैं। कई किताबों के लेखक और कई राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय समाचार चैनलों के संपादक रह चुके अभिरंजन फिलहाल न्यूट्रल मीडिया प्राइवेट लिमिटेड के निदेशक हैं।


राजनीति एक ऐसी पहेली है, जिसमें मज़ा सबको आता है, लेकिन समझते उसे कम ही लोग हैं। एक साल के भीतर दिल्ली में दो बड़े दंगे बता रहे हैं कि विपक्ष और सरकार दोनों ने ही अपने-अपने राजनीतिक लाभ के लिए दिल्ली को अपना एक्सपेरिमेंट ग्राउंड बना लिया है। यह स्थिति अत्यंत ही दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर ऐसे ही चलता रहा तो दिल्ली और भारत की छवि को पूरी दुनिया में नेस्तनाबूद होने से कोई बचा नहीं सकता।

जहां तक सरकार का सवाल है, तो शाहीन बाग आंदोलन और किसान आंदोलन की हैंडलिंग को लेकर उससे मेरी कुछ असहमतियां हैं और इसका कारण मेरा यह ठोस विश्वास है कि 350 से अधिक लोकसभा सीटों के व्यापक जनादेश और अपार लोकप्रियता के साथ बनी मोदी सरकार इतनी मजबूत ज़रूर है, कि उसकी मर्ज़ी के बिना अगले कार्यकाल को जोड़कर आगामी 10 साल तक इस देश में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। इसलिए अगर कहीं कोई पत्ता हिलता हुआ आपको दिखाई दे रहा हो, तो समझ जाइए कि सरकार स्वयं चाहती है कि यह वाला पत्ता हिले।

एक झटके में जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाकर उसका पुनर्गठन कर देने वाली, पाकिस्तान में खुल्लमखुल्ला एयर स्ट्राइक कर देने वाली, तीन तलाक के खिलाफ कानून बना देने वाली, तीन इस्लामी देशों के प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के लिए सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट ले आने वाली और राम मंदिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त करा लेने वाली सरकार इतनी कमज़ोर तो नहीं हो सकती कि उसकी मर्ज़ी के बिना कहीं कुछ हो जाए।

किसान आंदोलन में कई तरह के असामाजिक तत्व भी घुस आए हैं, सरकार ने अपने इंटेलीजेंस इनपुट के हवाले से खुद ही सुप्रीम कोर्ट को इसकी जानकारी दी थी। फिर भी उसने कुछ नहीं किया, तो इसका कारण यह है कि शाहीन बाग और किसान आंदोलन दोनों से निपटने का रास्ता ही सरकार ने यह चुना कि इनका आंदोलन लंबा चलने दिया जाए और मीडिया, खास कर सोशल मीडिया के ज़रिए इनके खिलाफ जनमत तैयार किया जाए, ताकि अपने पक्ष में ध्रुवीकरण भी साथ-साथ चलता रहे। दोनों मौकों पर सरकार स्वयं सोई हुई दिखी, लेकिन उसका सोशल मीडिया ब्रिगेड लगातार जागता रहा। इस तरह की रणनीति किसी राजनीतिक दल के फायदे के हिसाब से ठीक हो सकती है, लेकिन किसी सरकार के दायित्व निर्वाह के हिसाब से मुझे ठीक नहीं लगती, क्योंकि दोनों बार ऐसी रणनीति की परिणति व्यापक हिंसा के रूप में हुई है, जिससे देश को जान-माल का व्यापक नुकसान हुआ है।

जहाँ तक विपक्ष का सवाल है, तो सत्ता से बिछुड़ने के बिछोह में आंदोलन के नाम पर हिंसा और बंटवारे को ही उसने अपना मुख्य मॉडल बना लिया लगता है। गुजरात का पटेल आंदोलन, हरियाणा का जाट आंदोलन, जेएनयू का टुकड़े-टुकड़े आंदोलन, शाहीन बाग का सीएए-विरोधी आंदोलन जो दिल्ली दंगों का कारण बना और अब किसान आंदोलन जो पुनः दिल्ली में दंगों का कारण बना – इन सारे आंदोलनों में हिंसा और बंटवारा कॉमन फैक्टर रहे। कभी पटेलों को भड़काया गया, कभी जाटों को भड़काया गया, कभी दलितों को भड़काया गया, जब दलित भड़क गए तो अगड़ों को भड़काया गया, मुसलमानों को भड़काने का सिलसिला तो अनवरत चलता ही रहता है और अब सिखों को भड़काया गया। यानी अंग्रेज़ चले गए, लेकिन हमारे कुटिल राजनेताओं के खून में “फूट डालो और राज करो” की नीति का ऐसा ज़हर इंजेक्ट कर गए, जिससे लगभग यह पूरी कम्युनिटी ही ज़हरीली हो चली है।

विपक्षी दलों को लग सकता है कि हिंसा और बंटवारे पर आधारित ऐसी राजनीति से उसे सरकार पर हमला बोलने का मौका मिलेगा, लेकिन सच यह है कि सरकार के लिए जाल बिछाने में वे खुद ही उसके जवाबी जाल में उलझ जाते हैं, क्योंकि इस वक्त केंद्र सरकार में कम से कम दो ऐसे घाघ नेता बैठे हुए हैं, जो इन जैसे तमाम तीसमार खां राजनीतिज्ञों का राजनीतिक भोजन करने के बाद भी पूछ सकते हैं कि भाई, मुझे डकार क्यों नहीं आ रही? लिहाजा, अपनी नासमझी और अदूरदर्शिता के कारण विपक्षी दलों का नुकसान बढ़ता ही जा रहा है। अगर आज देश में चुनाव हो जाएं, तो भाजपा को 330 और एनडीए को 375 सीटें आएंगी, जो कि 2019 से भी 25-30 सीटें ज़्यादा ही हैं।

इसलिए, जिन लोगों ने 26 जनवरी के दिन हज़ारों ट्रैक्टरों और किसानों के साथ दिल्ली कूच की रणनीति बनाई थी, उनकी मूर्खता पर मुझे तरस आ रहा है। देश में बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे, जो सरकार का समर्थक माने जाते हैं, बावजूद इसके किसानों से जुड़ी भावना के कारण वे उनके साथ खड़े थे। अगर किसान दिल्ली की सीमाओं पर ही शांतिपूर्वक डटे रहते तो उन्हें विशेष लाभ होता, क्योंकि मीडिया कवरेज उन्हें फिर भी पूरा मिल रहा था और सरकार इतने से ही सांसत में फंसी रहती।

सवाल है कि हर आंदोलन को लाल किले, इंडिया गेट या संसद भवन पर ही करना क्यों जरूरी है, अगर बिना ऐसा किये ही आपकी बात देश के लोगों और सरकार तक पहुंच रही है? अधिक नकारात्मकता, हिंसा और नीति-विरोध के नाम पर व्यक्ति-विशेष के विरोध की हदें पार कर जाना किसी भी आंदोलन के लिए घातक होता है।

इस लिहाज से देखा जाए तो सरकार ने अगर डेढ़ साल के लिए कानूनों को स्थगित रखने का प्रस्ताव दे दिया था, तो किसानों की जीत तो हो ही चुकी थी, क्योंकि जो चीज़ डेढ़ साल के लिए टल गई, वह उनकी वाजिब मांगों को पूरा किये बिना दोबारा लागू हो जाती, ऐसा संभव नहीं था। सरकार ने ऐसा ऑफर केवल इसीलिए तो दिया था कि कानूनों को वापस लेने की शर्मिंदगी से बचने का रास्ता उसे मिल जाए। डेढ़ साल बाद कहने को कानून तो वही रहता, लेकिन उसके पूरे के पूरे ड्राफ्ट को बदल दिए जाने की गुंजाइश पैदा हो गई थी। यकीन मानिए कि जो सरकार आनन फानन मे जीएसटी लाकर उसमें बहत्तर बदलाव कर सकती है, उस सरकार से आप कृषि कानूनों में भी पचहत्तर परिवर्तन करा सकते थे।

खैर, इतनी समझदारी होती तो ये लोग विपक्ष में बैठकर ननिहाल के संतरे क्यों चूस रहे होते? और जब राजनीतिक दलों का स्वार्थ देशहित और जनहित से बड़ा हो जाए तो उन्हें कौन समझा सकता है? इसलिए आगे आगे देखिए होता है क्या!

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